Saturday, September 5, 2009

Lalit Mehta, Tapas Soren

NREGA TAPAS SOREN
झारखंड : नरेगा में भ्रष्टाचार के खिलाफ तापस सोरेन का आत्मदाह

Statement on murder of Lalit Mehta
We are deeply disturbed by the recent murder of Lalit Kumar Mehta, member of Vikas Sahyog Kendra (Palamau District), who was brutally killed on 14 May 2008 as he was returning from Daltonganj to Chhattarpur on a motorcycle. The circumstances of this murder are disturbing. Lalit (aged 36), an active member of the right to food campaign and Gram Swaraj Abhiyan, has been working in this area for more than 15 years on issues related to the right to food and the right to work. He was a very gentle person and his work was widely appreciated. However he was also fearless in exposing corruption and exploitation, and often came in the way of vested interests. At the time of this incident, Lalit was helping a team of volunteers from Delhi and elsewhere to conduct a social audit of NREGA works in Chainpur and Chhattarpur Blocks of Palamau District. Attempts had already been made to dissuade the team from conducting this investigation, particularly in Chainpur Block. Is it a coincidence that Lalit was murdered just one day after the investigation began? If this murder was an act of intimidation, it did not succeed. Friends and supporters from all over Jharkhand gathered at Vikas Sahyog Kendra on 17 May. They unanimously resolved to continue the campaign against corruption and exploitation in this area. A public hearing of NREGA will be held in Chhattarpur on 26 May. We appeal to all those who stand in solidarity with Lalit and his work to participate in this event.
Our immediate demands:
(1) CBI enquiry into this incident;
(2) strict action on all the complaints and irregularities emerging from this social audit of NREGA.
-Balram (Right to Food Campaign), Jean Drèze (Allahabad University), Jawahar (Vikas Sahyog Kendra), Meghnath (Akhra, Ranchi), Vinoy Ohdar (ActionAid) and others including all members of Gram Swaraj Abhiyan.
Video News on killing of Lalit Mehta

नरेगाः सर्वे टीम निकली, कार्यस्थल गायब

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. ज्यां द्रेज एवं सामाजिक कार्यकत्र्ता रितिका खेरा के नेतृत्व में झारखंड के खूंटी जिले में नरेगा संबंधी कार्यों का सर्वेक्षण चल रहा है।यह रांची से सटा जिला है। 5 मई 2009 को जिला खूंटी में नरेगा सर्वे एक की शुरूआत अजीब सी रही। सर्वे टीम को कहीं भी चालू नरेगा कार्यस्थल देखने को नहीं मिला ।इस सर्वे टीम में दिल्ली एवं अन्य विश्वविद्यालयों से आए छात्रों के साथ स्थानीय वालंटियर शामिल हैं। 5 मई को तीन टीमों ने अपना काम तीरला, हस्सा और सिलादोन ग्राम पचायत में शुरू किया। ग्राम पचायत तीरला में, टीम एक गांव से दूसरे गांव भागते रहे लेकिन उन्हें गांव सिम्बूकेल के अलावा कहीं भी ऐसा कोई नरेगा कार्यस्थल नहीं मिला जहां काम चल रहा हो। उन्हें बताया गया कि ज्यादातर काम पूरे हो चुके हैं। इसे प्रखंड दस्तावेजों से सत्यापित किया जा रहा है। सिम्बूकेल की इस कार्यस्थल पर पिछले डेढ महीने से काम बन्द था क्याोकि वहां कई मजदूरो को मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ था ।ग्राम पंचायत हस्सा की टीम, जिसकी अगुवाई डा० अनीरबन कार (दिल्ली स्कूल आॅॅफ इकोनोमिक्स से) कर रहे है, को कहा गया कि एक दिन पहले आयी बारिश की वजह से नरेगा कार्यों में अवरोध पैदा हो गया । इसमें कितना सच है यह तो समय ही बताएगा।ग्राम पचायत सिलादोन में, अपरना जाॅन (केरल से आई) के संचालन में टीम को एक नरेगा कार्यस्थल मिला जहां कार्य चालू था। इस कार्यस्थल को ढूंढने में फागु सिंह (प्रधान, चुकरू) ने टीम की मदद की, जो कि टीम के सदस्य है। हांलाकि सिलादोन में अन्य किसी स्ािान पर नरेगा कार्यो के चालू होने का कोई निशान नहीं मिला फिर भी खोज जारी है । नरेगा सर्वे टीम के सदस्यों को नरेगा संबंधित सरकारी दस्तावेज प्राप्त करने में कुछ हद तक सफलता मिली ।“हर हाथ को काम मिले” नारे के तहत जारी हुए “रोजगार अधिकार अभियान” में जिला प्रशासन द्वारा की गई पहल के बावजूद ऐसी स्थिति होना निराशाजनक है। अभियान किस मुकाम तक होगा यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा ।दूसरी ओर, टीम ने पाया कि लोग नरेगा में काम करना चाहते है, बशर्ते समय पर भुगतान हो, और नरेगा के तहत तैयार किये जाने वाले संसाधनो की भी मांग है। कल और परसों की बारिश और तूफान के बावजूद तिरला गावं से बुदूदी गांव को जाने वाली मुरम सड़क (नरेगा के तहत बनी) साफ और अच्छी दशा में मिली। ऐसी स्थिति में नरेगा सुचारू रूप से चले यह सुनिश्चित करना होगा।नरेगा सहायता केन्द्र, खूंटी द्वारा जारी (9608460736)

Thursday, August 20, 2009


भूख के खिलाफ एक कानून
विष्णु राजगढ़िया
भारतीय संविधान के 21 वें अनुच्छेद में हर नागरिक को जीने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन जिस व्यक्ति के पास जीने के लिए जरूरी साधन न हो और जो भूख से मरने के लिए मजबूर हो, उसके बारे में अब तक कोई स्पष्ट कानून नहीं है। भूख से मौत की जटिल परिभाषा के कारण बड़ी संख्या में ऐसी ज्यादातर मौतें रिकॉर्ड में नहीं आ पातीं। अब खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में पहली बार भारत सरकार हर इंसान को जिंदा रहने के लिए जरूरी खाद्यान्न् उपलब्ध कराने का दायित्व स्वीकारने जा रही है।
यह कोई योजना नहीं, बल्कि एक कानून होगा। इस लिहाज से इसे सामाजिक कल्याण के एक बड़े कदम के बतौर देखा जा रहा है।कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वादा किया था। पहली पारी में मनमोहन सरकार ने नरेगा और सूचना का अधिकार कानून बनाकर एक प्रगतिशील छवि बनाने में जबरदस्त सफलता पाई थी। कांगेस की सफलता के पीछे इन दोनों कानूनों का बड़ा हाथ माना जा रहा है। अब दूसरी पारी में मनमोहन सरकार खाद्य सुरक्षा कानून लाकर एक बड़ी लकीर खींचना चाहती है।
इसे सौ दिनों के अंदर किये जाने वाले कार्यों की सूची में रखा गया है। केंद्रीय बजट में भी इसका प्रावधान देखा गया।हालांकि भारत में खाद्य सुरक्षा संबंधी मौजूदा सुविधाओं और प्रावधानों का श्रेय किसी राजनीतिक दल को नहीं जाता। पीयूसीएल की राजस्थान इकाई ने वर्ष 2001 में भोजन के अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। उस वक्त देश के गोदामों में भरपूर अनाज होने के बावजूद देश के विभिन्न् हिससों से भूख से मौत की खबरें आ रही थीं। इस याचिका के साथ ही भोजन के अधिकार को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किये। आज भी सुप्रीम कोर्ट के प्रत्यक्ष देख-रेख में भी खाद्य सुरक्षा संबंधी सीमित व्यवस्था लागू है। इसमें बच्चों के लिए स्कूल में दोपहर का भोजन, आईसीडीसी और आंगनबाड़ी में मिलनेवाली खाद्य सामग्री प्रमुख है।फिलहाल खाद्य सुरक्षा कानून के स्वरूप को लेकर विचार-विमर्श जारी है। इस दिशा में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस कानून के निर्माण की प्रक्रिया पर सिविल सोसाइटी को तीक्ष्ण नजर रखते हुए ठोस हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि एक मुकम्मल कानून बन सके।
इस कानून की मूल भावना भारत में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए सम्मानपूर्वक एक सक्रिय एवं स्वस्थ जीवन जीने के लिए उपयुक्त खाद्य आवश्यकता उपलब्ध कराना बताई जाती है।
इन खाद्य जरूरतों को पर्याप्त मात्रा में तथा पोष्टिक और सांस्कृतिक तौर पर अनुकूल होने और भौतिक, आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक बताया जा रहा है।सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्याह्न भोजन के लिए नियुक्त किये गये कमिश्नर के सलाहकार बलराम के अनुसार मौजूदा सभी योजनाओं का लाभ इस कानून में अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के सभी आदेशों के अनुकूल प्रावधान भी शामिल किये जाने चाहिए। इसके अंतर्गत सभी सरकारी एवं वित्त प्रदत्त स्कूलों में पकाया हुआ गर्म एवं पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने, छह साल तक बच्चों को आइसीडीएस की सुविधाएं और प्राथमिकता वाले समूहों को अंत्योदय की सुविधाएं उपलब्ध कराना शामिल है। जो सामाजिक समूह अब तक किसी योजना में शामिल नहीं हैं, उनके लिए भी खाद्यान्न् सुनिश्चित करने का प्रावधान किये जाने की मांग की जा रही है। जैसे, शहरी गरीब और स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे।
भूख से मौत की ओर उन्मुख आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार से सक्रिय होने की इस कानून में अपेक्षा की जा रही है। इसमें धनी वर्ग को छोड़कर देश में रहने वाले सभी लोगों को जनवितरण प्रणाली के तहत प्रति परिवार 35 किलो अनाज प्रति माह तीन स्र्पये की दर से करने का प्रावधान होने की संभावना है। कमजोर समूहों को अनुदानित दर पर तेल एवं दाल, घी उपलब्ध कराने की मांग की जा रही है।कुछ लोगों ने खाद्यान्न् के बदले गरीबों और बच्चों को नगद राशि देने का सुझाव दिया है।
लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता इनसे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि खाद्यान्न् का विकल्प खाद्यान्न् ही हो सकता है, नगद नहीं। फिर, नगद पर पुस्र्षों का अधिकार होता है, जबकि अनाज पर महिलाओं का अधिकार होता है। इस कानून में खाद्यान्न् से संबंधित मामलों में महिलाओं को घर का मुखिया मानने का प्रावधान करने का सुझाव दिया जा रहा है।हमारे देश में विभिन्न् सामाजिक कल्याण संबंधी योजनाओं में कॉरपोरेट घरानों और ठेकेदारों की घुसपैठ होती रही है। इस कानून में इसे रोकने के सख्त उपाय की मांग की जा रही है।
साथ ही, शिकायतों पर कार्रवाई की सुदृढ़ व्यवस्था, कानून की अवहेलना करने वाले अधिकारियों को दंड और इसके कारण वंचित लोगों को समुचित मुआवजा देना भी कानून का अनिवार्य अंग होना चाहिए। इस कानून में खाद्यान्न् उत्पादन को बढ़ावा देने तथा सभी क्षेत्रों में खाद्यान्न्ों में प्राप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने संबंधी स्पष्ट प्रावधान हो।खाद्य सुरक्षा कानून में कई अन्य जटिलताओं को ध्यान में रखना जरूरी है। एक बड़ी जटिलता गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को चिह्नित करना, इनकी मुकम्मल सूची तैयार करना और समय-समय पर इसका संशोधन करना है। बीपीएल सूची के लिए नये मापदंड बनाने की जरूरत महसूस की गई है।
फिर, इस संख्या के अनुपात में राशि का आवंटन करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। इसके अलावा वितरण की समस्या को सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अब तक का अनुभव बताता है कि केंद्रीय योजनाओं का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच पाता तथा योजनाओं के बावजूद लोगों की जिंदगी पर कोई स्पष्ट दिखने वाला फर्क नजर नहीं आता। अब तक चल रही जन वितरण प्रणाली का हाल किसी से छुपा नहीं है।ऐसे में खाद्य सुरक्षा कानून के लिए बड़ी चुनौती इसका लाभ वास्तविक लोगों तक पहुंचाने के लिए मुकम्मल वितरण व्यवस्था तैयार करनी होगी।
यही कारण है कि कृषि राज्य मंत्री केवी थॉमस ने इस कानून को नरेगा से भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण करार दिया है। इस कानून के मसविदा दस्तावेज में बीपीएल के अलावा कई अन्य लाभुक समूहों को तीन स्र्पये की दर से प्रतिमाह 35 किलो अनाज उपलब्ध कराने की बात कही गयी है। इसमें अकेली महिला, लेप्रोसी पीड़ित लोग, एचआइवी या मानसिक रोग ग्रस्त लोग, बंधुआ मजदूर, भूमि हीन कृषि मजदूर, स्वपेशा दस्तकार, कचड़ा चुनने वाले, निर्माण उद्योग से जुड़े मजदूर, फुथपाथ विक्रेता, रिक्शाचालक, घरेलू नौकर इत्यादि शामिल हैं। प्राकृतिक आपदा या सांप्रदायिक दंगे के शिकार लोगों को भी इसका लाभ मिल सकता है। ऐसे बीपीएल परिवारों को दोगुना राशन मिल सकता है, जिनमें छह साल से छोटे बच्चे, किशोरी, गर्भवती स्त्री या बच्चें को दूध पिलाने वाली मां हो।
कानून के प्रारूप में हर पांच साल पर सर्वेक्षण करके लाभुकों को पहचान पत्र निर्गत करने की बात कही गई है। वृद्ध लोगों, अकेली महिला तथा विकलांगों को आइसीडीएस केंद्र या स्कूल में मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने की बात कही गई है। मसविदा विधेयक में राज्य सरकार पर जन वितरण प्रणाली द्वारा अनाज की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है। दुकानदारों के चयन में स्थानीय निकाय प्रतिनिधियों की भूमिका होगी तथा इन प्रतिनिधियों के साथ हर तीन महीने पर बैठक के जरीय निगरानी रखी जायेगी। राज्य सरकारों को पूरी जनवितरण प्रणाली दो साल के भीतर कंप्यूटरीकृत कर लेनी होगी। शिकायतें दर्ज कराने के लिए नि: शुल्क टेलीफोन नंबर तथा वेबसाइट की व्यवस्था करनी होगी। सभी शिकायतों का 39 दिनों में निपटारा करके इसे सार्वजनिक रूप से घोषित करना जरूरी होगा।
इस कानून का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों पर एक महीने पांच साल तक के वेतन लग सकता है। लापरवाह अधिकारियों को भूख से मौत या गंभीर रोगजन्य स्थितियों के लिए छह माह से पांच साल तक जेल की सजा भी दी जा सकती है।भारत में आज भी भूख और कुपोषण आज बड़ी समस्या है। अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने कालाहांडी को खाद्यान्न् का कटोरा बनाने का वादा किया था। लेकिन वह कोई ठोस कदम नहीं उठा सके।
अब मनमोहन सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में एक बड़ी पहल की है। आज भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 32 करोड़ बताई जाती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भुखमरी के शिकार 119 देशों की सूची जारी की थी, जिसमें भारत का नाम शामिल है। झारखंड और छत्तीसगढ़ को सबसे ज्यादा खाद्य असुरक्षित राज्य माना जाता है। इनके बाद मध्यप्रदेश, बिहार और गुजरात का नाम आता है। फरवरी 2009 में विश्व खाद्य कार्यक्रम तथा एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन ने ग्रामीण भारत में खाद्य असुरक्षा संबंधी एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें बताया गया कि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। खाद्य उत्पादन के जिम्मे विकास, बढ़ती बेरोजगारी तथा गरीबांे की घटती क्रयशक्ति को इसका प्रमुख कारण बताया गया।बहरहाल, भूख के खिलाफ एक कानून का सबको इंतजार है।
कांग्रेस इसे सन सत्तर के गरीबी हटाओ के नारे तथा नरेगा की अगली कड़ी के बतौर देख रही है। भाजपा व अन्य विपक्षी इसे लोकलुभावन और सस्ता प्रयास बताकर इसकी मंशा और व्यावहारिकता पर अनगिनत सवाल खड़े कर रहे हैं। इतना तो तय है कि भूख से संरक्षण को कानून बनाने और हर आदमी की खाद्य सुरक्षा को राज्य का दायित्व स्वीकारने के बाद हमारा देश एक वास्तविक लोककल्याण राज्य बनने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ रहा होगा

Friday, November 7, 2008



Article of Jean D'reze on Corruption in NREGA in Published in Prabhat Khabar, 07-11-08, Page 07

नरेगा की बदहाली और शासनतंत्र



बलराम


झारखंड में नरेगा की बदहाली खुद सरकारी आंकड़ों से बयान होती है। यह इस राज्य का एक और बड़ा दुभाग्य है। नरेगा कानून का लाभ उठाकर देश के अन्य राज्य अपनी ग्रामीण आबादी की किस्मत संवार रहे है। लेकिन झारखंड में इसकी पूरी रािश लूट का िशकार हो रही है। काम के अभाव में ग्रामीण आबादी पलायन। अन्य राज्यों में शोषण और राज ठाकरे जैसे लोगों की नफरत सहने को विवश है। लेकिन राज्य के मुख्य सचिव को नरेगा से जुड़े मामलों पर कोई बैठक करते कभी नहीं देखा जाता। एक विडंबना यह भी है कि विभागीय मंत्री के मुंह से इस योजना का नाम शायद ही कभी सुना गया हो। मंत्री महोदय द्वारा नरेगा में ठेकेदारी को बढ़ावा देने की कोिशशों की चर्चा जरूर सामने आती रही है।सरकारी आंकड़े बताते हैं कि गांवों में हर जरूरतमंद परिवार को साल में कम से कम एक सौ दिन काम देने का लक्ष्य झारखंड में पूरी तरह विफल रहा। नरेगा के अंतर्गत विकास रािश का बड़ा हिस्सा खर्च होने के बावजूद ग्रामीणों को रोजगार नहीं मिल पाया। इसका बड़ा कारण यह रहा कि ठेकेदारों और मशीनों के जरिये काम कराये गये जिसके कारण रोजगार का सृजन नहीं हो पाया। पंचायतों के अभाव के कारण ग्रामसभाएं भी ठेकेदारों की कठपुतली मात्र बनकार रह जाती है। भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय की वेबसाइट पर झारखंड के आंकड़े इस बदहाली का सबूत हैं। वषZ 2007-08 में फरवरी महीने तक मात्र 16।7 लाख परिवारों को रोजगार दिया जा सका। जबकि इस अवधि तक जोब कार्ड रखने वाले परिवारों की संख्या 29।5 लाख थी। यानी जोब कार्ड रखने वाले 44 प्रतिशत परिवारों को रोजगार नहीं दिया जा सका। हालांकि सरकारी आंकड़ों के खेल में दिखाया गया है कि शेष परिवारों ने रोजगार की मांग ही नहीं की। हर जिले के आंकड़ों में जितने परिवारों को रोजगार मिला, उतने ही परिवारों द्वारा मांग किये जाने के आंकड़े दिखाकर तलपट बराबर कर दिया गया है। जबकि यह गंभीर जांच का विषय है कि जिन जरूरतमंद परिवारों ने नरेगा के तहत जोब कार्ड बनवाये, उनमें 44 प्रतिशत परिवारों ने रोजगार की मांग सचमुच नहीं की, या कि उनके आवेदनों को रफा-दफा कर दिया गया। जमीनी सच्चाई बताती है कि रोजगार की मांग के आवेदन लेने तथा उसकी पावती देने की कोई व्यवस्था कहीं नजर नहीं आती। ऐसे में रोजगार की मांग को कम करके दिखा देना बेहद आसान है।इससे भी ज्यादा चिंता का विषय यह है कि रोजगार की मांग करने वाले मात्र तीन प्रतिशत परिवारों को 100 दिन काम मिला। अक्तूबर 2008 तक 16।7 लाख परिवारों को काम मिला। इनमें मा।त्र 49 हजार परिवारों को सौ दिन काम दिया जा सका। कई जिलों में महिला श्रमिकों की उपेक्षा भी चिंताजनक है। बोकारो जिले में 24 हजार परिवारों को काम मिला। इनमें महिलाओं की सख्या मात्र 2363 है जो दस प्रतिशत से भी कम है। शर्मनाक तो यह कि सरकार की नाक के नीचे रांची जिले में 56603 परिवारों को काम मिला जिनमें महिलाओं की संख्या शून्य रही।बेहतर होगा कि नरेगा को झारखंड के भाग्यविधाता किसी बोझ के रूप में नहीं ले। राज्य के विकास के प्रति चितित हर नागरिक और सिविल सोसाइटी भी इस कानून को राज्य की सूरत बदलने के अवसर के बतौर देखे। यह कानून सिर्फ गांव के गरीबों की नहीं बल्कि पूरे राज्य की तकदीर बदल सकता है। लेकिन जहां करोड़ों रुपये खर्च करके बर्थडे मनाने की होड़ मची हो, वहा इसकी चिंता किसे है? ग्रामीण विकास मत्री के यहां बर्थडे पार्टी में किन 25 हजार लोगों ने दावत उड़ायी और महंगे उपहार दिये, इसकी जांच हो तो नरेगा की लूटखसोट में जुटे गंठजोड़ का चेहरा सामने आ सकता है।(लेखक झारखंड नरेगा वाच के संयोजक हैं)

Thursday, October 23, 2008


आदिम जनजातियों के संरक्षण एवं कल्याण के लिए
विभिन्न योजनाओं के समन्वय से बहुउद्देश्यीय सेवा केंद्र बनाएं

-बलराम
झारखंड अलग राज्य के गठन की अवधारणा का मूल आधार विभिन्न जनजातियों का समुचित विकास और उन्हें संरक्षण प्रदान करना था। लेकिन राज्य बनने के आठ वषZ बाद भी आदिम जनजातियों के विभिन्न हिस्सों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। हाल के दिनों में भूख और बीमारी से हुई मौतें तो महज अब तक इस मामले में बरती गयी उदासीनता को उजागर करने वाला संकेतक मात्र है। इसलिए बेहतर होगा कि इन संकेतकों को गंभीरता से लेते हुए तत्काल हम ठोस, समिन्वत एवं दीघZकालिक कदम उठायें।केंद्र तथा राज्य सरकार की अनगिनत योजनाएं हैं जिनका लक्ष्य विभिन्न प्रकार के वंचित एवं जरूरतमंद तबकों के हितों की रक्षा एवं उनका कल्याण करना है। आदिम जनजातियों के हित में वर्तमान कार्यभार को पूरा करने की दिशा में हमें ऐसी समस्त योजनाओं एवं कार्यक्रमों को समिन्वत करने का एक रचनात्मक प्रयास करना चाहिए। इसके जरिये हम एक बहुउद्देश्यीय सर्विस केंद्र स्थापित करें तो ठोस एवं दूरगामी सफलता मिल सकती है। इसके लिए बिंदुवार सुझाव इस प्रकार हैं-
• आदिम जनजातियों की आबादी के प्रत्येक इलाके में बहुउद्देश्यीय सर्विस केंद्र यानी मल्टी परपस सर्विस सेंटर स्थापित करें
• इस केंद्र को मुख्यत: इन बिंदुओं पर काम करना है
खाद्य सुरक्षा या फूड सिक्यूरिटीव रोजगार सुरक्षा या जोब सिक्यूरिटीव वोकेशनल ट्रेनिंगव केंद्र एवं राज्य की विभिन्न योजनाओं का लाभ दिलाने का सिंगल विंडो टाइप सिस्टम
• इस केंद्र में एक सामुदायिक रसोईघर या कम्युनिटी कीचन की स्थापना की जाये जहां आदिम जनजातियों के प्रत्येक जरूरतमंद सदस्य को सुबह नाश्ता, दोपहर में भोजन और शाम को अल्पाहार का प्रबंध हो।
• जो आदिम जनजाति जिस पेशे से जुड़ी है या जिस कार्य में उसकी दक्षता है, उससे संबंधित वोकेशनल प्रिशक्षण का प्रबंध इस केंद्र में हो।
• समेकित बाल विकास परियोजना यानी आइसीडीएस के अंतर्गत मिलने वाली सभी सेवाओं का संचालन इस केंद्र में हो।
• स्वास्थ्य संबंधी नियमित जांच एवं सभी स्वास्य सेवाएं सुनििश्चत करना
• जननी सुरक्षा योजना का लाभ दिलाना
• जनवितरण प्रणाली का लाभ, अंत्योदय योजना का लाभ
• वृ़द्धावस्था पेंशन का लाभ दिलाया
• पोषण की व्यवस्था
• नरेगा के तहत मिलने वाली सुविधाए प्रदान करना
ऐसे केंद्रों का संचालन करने के लिए राज्य सरकार के आदिवासी कल्याण विभाग के द्वारा प्रत्येक केंद्र में एक ऐसे मल्टी-स्कील्ड वर्कर की नियुक्ति की जाये जिसे इन सभी योजनाओं एवं कार्यक्रमों की समुचित जानकारी हो।
उसके तीन काम होंगे- 1। केंद्र का संचालन, 2। प्रखंड कार्यालय के साथ लिंक परसन के रूप में काम करना। 3। सभी योजनाओं की निगरानी एवं जिला उपायुक्त को सीधे रिपोर्ट करना
इस रिपोर्ट के आधार पर उपायुक्त मासिक समीक्षा करेंगे और समुचित कदम उठायेंंगे।प्रत्येक तीन महीने पर राज्य के मुख्य सचिव हर जिले की समीक्षा करेंगे।

Monday, October 13, 2008


Convention on NREGA (Ranchi, 7-9 November 2008)

A three-day convention on NREGA will be held in Namkum Bagicha (near Ranchi) on 7-9 November, 2008. The aim of this convention is to review the status of NREGA in Jharkhand and plan future activities.

This event is a joint effort of many local organizations working on NREGA in Jharkhand. Members of these organizations met in Ranchi on 10 September and decided to call this convention.

Recent events in Jharkhand, including a spate of murders and suicides related to NREGA, highlight the need for a strong people's movement for the right to work. Among the main issues to be discussed at the convention are:
(1) demand for work and participatory planning;
(2) wage-related issues;
(3) social audits;
(4) struggles for the unemployment allowance;
(5) formation of NREGA unions.

Activists from all over Jharkhand, and also some other states, are expected to participate in this convention. The next preparatory meeting for this convention will be held in Ranchi on 13 October.
For further details please call Balram (9934320657) .

Wednesday, September 17, 2008