Saturday, September 5, 2009

Lalit Mehta, Tapas Soren

NREGA TAPAS SOREN
झारखंड : नरेगा में भ्रष्टाचार के खिलाफ तापस सोरेन का आत्मदाह

Statement on murder of Lalit Mehta
We are deeply disturbed by the recent murder of Lalit Kumar Mehta, member of Vikas Sahyog Kendra (Palamau District), who was brutally killed on 14 May 2008 as he was returning from Daltonganj to Chhattarpur on a motorcycle. The circumstances of this murder are disturbing. Lalit (aged 36), an active member of the right to food campaign and Gram Swaraj Abhiyan, has been working in this area for more than 15 years on issues related to the right to food and the right to work. He was a very gentle person and his work was widely appreciated. However he was also fearless in exposing corruption and exploitation, and often came in the way of vested interests. At the time of this incident, Lalit was helping a team of volunteers from Delhi and elsewhere to conduct a social audit of NREGA works in Chainpur and Chhattarpur Blocks of Palamau District. Attempts had already been made to dissuade the team from conducting this investigation, particularly in Chainpur Block. Is it a coincidence that Lalit was murdered just one day after the investigation began? If this murder was an act of intimidation, it did not succeed. Friends and supporters from all over Jharkhand gathered at Vikas Sahyog Kendra on 17 May. They unanimously resolved to continue the campaign against corruption and exploitation in this area. A public hearing of NREGA will be held in Chhattarpur on 26 May. We appeal to all those who stand in solidarity with Lalit and his work to participate in this event.
Our immediate demands:
(1) CBI enquiry into this incident;
(2) strict action on all the complaints and irregularities emerging from this social audit of NREGA.
-Balram (Right to Food Campaign), Jean Drèze (Allahabad University), Jawahar (Vikas Sahyog Kendra), Meghnath (Akhra, Ranchi), Vinoy Ohdar (ActionAid) and others including all members of Gram Swaraj Abhiyan.
Video News on killing of Lalit Mehta

नरेगाः सर्वे टीम निकली, कार्यस्थल गायब

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. ज्यां द्रेज एवं सामाजिक कार्यकत्र्ता रितिका खेरा के नेतृत्व में झारखंड के खूंटी जिले में नरेगा संबंधी कार्यों का सर्वेक्षण चल रहा है।यह रांची से सटा जिला है। 5 मई 2009 को जिला खूंटी में नरेगा सर्वे एक की शुरूआत अजीब सी रही। सर्वे टीम को कहीं भी चालू नरेगा कार्यस्थल देखने को नहीं मिला ।इस सर्वे टीम में दिल्ली एवं अन्य विश्वविद्यालयों से आए छात्रों के साथ स्थानीय वालंटियर शामिल हैं। 5 मई को तीन टीमों ने अपना काम तीरला, हस्सा और सिलादोन ग्राम पचायत में शुरू किया। ग्राम पचायत तीरला में, टीम एक गांव से दूसरे गांव भागते रहे लेकिन उन्हें गांव सिम्बूकेल के अलावा कहीं भी ऐसा कोई नरेगा कार्यस्थल नहीं मिला जहां काम चल रहा हो। उन्हें बताया गया कि ज्यादातर काम पूरे हो चुके हैं। इसे प्रखंड दस्तावेजों से सत्यापित किया जा रहा है। सिम्बूकेल की इस कार्यस्थल पर पिछले डेढ महीने से काम बन्द था क्याोकि वहां कई मजदूरो को मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ था ।ग्राम पंचायत हस्सा की टीम, जिसकी अगुवाई डा० अनीरबन कार (दिल्ली स्कूल आॅॅफ इकोनोमिक्स से) कर रहे है, को कहा गया कि एक दिन पहले आयी बारिश की वजह से नरेगा कार्यों में अवरोध पैदा हो गया । इसमें कितना सच है यह तो समय ही बताएगा।ग्राम पचायत सिलादोन में, अपरना जाॅन (केरल से आई) के संचालन में टीम को एक नरेगा कार्यस्थल मिला जहां कार्य चालू था। इस कार्यस्थल को ढूंढने में फागु सिंह (प्रधान, चुकरू) ने टीम की मदद की, जो कि टीम के सदस्य है। हांलाकि सिलादोन में अन्य किसी स्ािान पर नरेगा कार्यो के चालू होने का कोई निशान नहीं मिला फिर भी खोज जारी है । नरेगा सर्वे टीम के सदस्यों को नरेगा संबंधित सरकारी दस्तावेज प्राप्त करने में कुछ हद तक सफलता मिली ।“हर हाथ को काम मिले” नारे के तहत जारी हुए “रोजगार अधिकार अभियान” में जिला प्रशासन द्वारा की गई पहल के बावजूद ऐसी स्थिति होना निराशाजनक है। अभियान किस मुकाम तक होगा यह तो आने वाले दिनों में पता चलेगा ।दूसरी ओर, टीम ने पाया कि लोग नरेगा में काम करना चाहते है, बशर्ते समय पर भुगतान हो, और नरेगा के तहत तैयार किये जाने वाले संसाधनो की भी मांग है। कल और परसों की बारिश और तूफान के बावजूद तिरला गावं से बुदूदी गांव को जाने वाली मुरम सड़क (नरेगा के तहत बनी) साफ और अच्छी दशा में मिली। ऐसी स्थिति में नरेगा सुचारू रूप से चले यह सुनिश्चित करना होगा।नरेगा सहायता केन्द्र, खूंटी द्वारा जारी (9608460736)

Thursday, August 20, 2009


भूख के खिलाफ एक कानून
विष्णु राजगढ़िया
भारतीय संविधान के 21 वें अनुच्छेद में हर नागरिक को जीने का अधिकार मिला हुआ है। लेकिन जिस व्यक्ति के पास जीने के लिए जरूरी साधन न हो और जो भूख से मरने के लिए मजबूर हो, उसके बारे में अब तक कोई स्पष्ट कानून नहीं है। भूख से मौत की जटिल परिभाषा के कारण बड़ी संख्या में ऐसी ज्यादातर मौतें रिकॉर्ड में नहीं आ पातीं। अब खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में पहली बार भारत सरकार हर इंसान को जिंदा रहने के लिए जरूरी खाद्यान्न् उपलब्ध कराने का दायित्व स्वीकारने जा रही है।
यह कोई योजना नहीं, बल्कि एक कानून होगा। इस लिहाज से इसे सामाजिक कल्याण के एक बड़े कदम के बतौर देखा जा रहा है।कांग्रेस ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का वादा किया था। पहली पारी में मनमोहन सरकार ने नरेगा और सूचना का अधिकार कानून बनाकर एक प्रगतिशील छवि बनाने में जबरदस्त सफलता पाई थी। कांगेस की सफलता के पीछे इन दोनों कानूनों का बड़ा हाथ माना जा रहा है। अब दूसरी पारी में मनमोहन सरकार खाद्य सुरक्षा कानून लाकर एक बड़ी लकीर खींचना चाहती है।
इसे सौ दिनों के अंदर किये जाने वाले कार्यों की सूची में रखा गया है। केंद्रीय बजट में भी इसका प्रावधान देखा गया।हालांकि भारत में खाद्य सुरक्षा संबंधी मौजूदा सुविधाओं और प्रावधानों का श्रेय किसी राजनीतिक दल को नहीं जाता। पीयूसीएल की राजस्थान इकाई ने वर्ष 2001 में भोजन के अधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी। उस वक्त देश के गोदामों में भरपूर अनाज होने के बावजूद देश के विभिन्न् हिससों से भूख से मौत की खबरें आ रही थीं। इस याचिका के साथ ही भोजन के अधिकार को लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल पर हाल के वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किये। आज भी सुप्रीम कोर्ट के प्रत्यक्ष देख-रेख में भी खाद्य सुरक्षा संबंधी सीमित व्यवस्था लागू है। इसमें बच्चों के लिए स्कूल में दोपहर का भोजन, आईसीडीसी और आंगनबाड़ी में मिलनेवाली खाद्य सामग्री प्रमुख है।फिलहाल खाद्य सुरक्षा कानून के स्वरूप को लेकर विचार-विमर्श जारी है। इस दिशा में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि इस कानून के निर्माण की प्रक्रिया पर सिविल सोसाइटी को तीक्ष्ण नजर रखते हुए ठोस हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि एक मुकम्मल कानून बन सके।
इस कानून की मूल भावना भारत में रहने वाले हर व्यक्ति के लिए सम्मानपूर्वक एक सक्रिय एवं स्वस्थ जीवन जीने के लिए उपयुक्त खाद्य आवश्यकता उपलब्ध कराना बताई जाती है।
इन खाद्य जरूरतों को पर्याप्त मात्रा में तथा पोष्टिक और सांस्कृतिक तौर पर अनुकूल होने और भौतिक, आर्थिक एवं सामाजिक तौर पर इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करना आवश्यक बताया जा रहा है।सुप्रीम कोर्ट द्वारा मध्याह्न भोजन के लिए नियुक्त किये गये कमिश्नर के सलाहकार बलराम के अनुसार मौजूदा सभी योजनाओं का लाभ इस कानून में अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही, इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के सभी आदेशों के अनुकूल प्रावधान भी शामिल किये जाने चाहिए। इसके अंतर्गत सभी सरकारी एवं वित्त प्रदत्त स्कूलों में पकाया हुआ गर्म एवं पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने, छह साल तक बच्चों को आइसीडीएस की सुविधाएं और प्राथमिकता वाले समूहों को अंत्योदय की सुविधाएं उपलब्ध कराना शामिल है। जो सामाजिक समूह अब तक किसी योजना में शामिल नहीं हैं, उनके लिए भी खाद्यान्न् सुनिश्चित करने का प्रावधान किये जाने की मांग की जा रही है। जैसे, शहरी गरीब और स्कूल नहीं जाने वाले बच्चे।
भूख से मौत की ओर उन्मुख आबादी की खाद्य सुरक्षा के लिए सरकार से सक्रिय होने की इस कानून में अपेक्षा की जा रही है। इसमें धनी वर्ग को छोड़कर देश में रहने वाले सभी लोगों को जनवितरण प्रणाली के तहत प्रति परिवार 35 किलो अनाज प्रति माह तीन स्र्पये की दर से करने का प्रावधान होने की संभावना है। कमजोर समूहों को अनुदानित दर पर तेल एवं दाल, घी उपलब्ध कराने की मांग की जा रही है।कुछ लोगों ने खाद्यान्न् के बदले गरीबों और बच्चों को नगद राशि देने का सुझाव दिया है।
लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता इनसे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि खाद्यान्न् का विकल्प खाद्यान्न् ही हो सकता है, नगद नहीं। फिर, नगद पर पुस्र्षों का अधिकार होता है, जबकि अनाज पर महिलाओं का अधिकार होता है। इस कानून में खाद्यान्न् से संबंधित मामलों में महिलाओं को घर का मुखिया मानने का प्रावधान करने का सुझाव दिया जा रहा है।हमारे देश में विभिन्न् सामाजिक कल्याण संबंधी योजनाओं में कॉरपोरेट घरानों और ठेकेदारों की घुसपैठ होती रही है। इस कानून में इसे रोकने के सख्त उपाय की मांग की जा रही है।
साथ ही, शिकायतों पर कार्रवाई की सुदृढ़ व्यवस्था, कानून की अवहेलना करने वाले अधिकारियों को दंड और इसके कारण वंचित लोगों को समुचित मुआवजा देना भी कानून का अनिवार्य अंग होना चाहिए। इस कानून में खाद्यान्न् उत्पादन को बढ़ावा देने तथा सभी क्षेत्रों में खाद्यान्न्ों में प्राप्त उपलब्धता सुनिश्चित करने संबंधी स्पष्ट प्रावधान हो।खाद्य सुरक्षा कानून में कई अन्य जटिलताओं को ध्यान में रखना जरूरी है। एक बड़ी जटिलता गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को चिह्नित करना, इनकी मुकम्मल सूची तैयार करना और समय-समय पर इसका संशोधन करना है। बीपीएल सूची के लिए नये मापदंड बनाने की जरूरत महसूस की गई है।
फिर, इस संख्या के अनुपात में राशि का आवंटन करना भी एक बड़ी चुनौती होगी। इसके अलावा वितरण की समस्या को सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देखा जा रहा है। अब तक का अनुभव बताता है कि केंद्रीय योजनाओं का लाभ नीचे तक नहीं पहुंच पाता तथा योजनाओं के बावजूद लोगों की जिंदगी पर कोई स्पष्ट दिखने वाला फर्क नजर नहीं आता। अब तक चल रही जन वितरण प्रणाली का हाल किसी से छुपा नहीं है।ऐसे में खाद्य सुरक्षा कानून के लिए बड़ी चुनौती इसका लाभ वास्तविक लोगों तक पहुंचाने के लिए मुकम्मल वितरण व्यवस्था तैयार करनी होगी।
यही कारण है कि कृषि राज्य मंत्री केवी थॉमस ने इस कानून को नरेगा से भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण करार दिया है। इस कानून के मसविदा दस्तावेज में बीपीएल के अलावा कई अन्य लाभुक समूहों को तीन स्र्पये की दर से प्रतिमाह 35 किलो अनाज उपलब्ध कराने की बात कही गयी है। इसमें अकेली महिला, लेप्रोसी पीड़ित लोग, एचआइवी या मानसिक रोग ग्रस्त लोग, बंधुआ मजदूर, भूमि हीन कृषि मजदूर, स्वपेशा दस्तकार, कचड़ा चुनने वाले, निर्माण उद्योग से जुड़े मजदूर, फुथपाथ विक्रेता, रिक्शाचालक, घरेलू नौकर इत्यादि शामिल हैं। प्राकृतिक आपदा या सांप्रदायिक दंगे के शिकार लोगों को भी इसका लाभ मिल सकता है। ऐसे बीपीएल परिवारों को दोगुना राशन मिल सकता है, जिनमें छह साल से छोटे बच्चे, किशोरी, गर्भवती स्त्री या बच्चें को दूध पिलाने वाली मां हो।
कानून के प्रारूप में हर पांच साल पर सर्वेक्षण करके लाभुकों को पहचान पत्र निर्गत करने की बात कही गई है। वृद्ध लोगों, अकेली महिला तथा विकलांगों को आइसीडीएस केंद्र या स्कूल में मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराने की बात कही गई है। मसविदा विधेयक में राज्य सरकार पर जन वितरण प्रणाली द्वारा अनाज की निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित करने का दायित्व सौंपा गया है। दुकानदारों के चयन में स्थानीय निकाय प्रतिनिधियों की भूमिका होगी तथा इन प्रतिनिधियों के साथ हर तीन महीने पर बैठक के जरीय निगरानी रखी जायेगी। राज्य सरकारों को पूरी जनवितरण प्रणाली दो साल के भीतर कंप्यूटरीकृत कर लेनी होगी। शिकायतें दर्ज कराने के लिए नि: शुल्क टेलीफोन नंबर तथा वेबसाइट की व्यवस्था करनी होगी। सभी शिकायतों का 39 दिनों में निपटारा करके इसे सार्वजनिक रूप से घोषित करना जरूरी होगा।
इस कानून का पालन नहीं करने वाले अधिकारियों पर एक महीने पांच साल तक के वेतन लग सकता है। लापरवाह अधिकारियों को भूख से मौत या गंभीर रोगजन्य स्थितियों के लिए छह माह से पांच साल तक जेल की सजा भी दी जा सकती है।भारत में आज भी भूख और कुपोषण आज बड़ी समस्या है। अटल बिहारी वाजपेयी जब पहली बार प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने कालाहांडी को खाद्यान्न् का कटोरा बनाने का वादा किया था। लेकिन वह कोई ठोस कदम नहीं उठा सके।
अब मनमोहन सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून के रूप में एक बड़ी पहल की है। आज भारत में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 32 करोड़ बताई जाती है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स ने भुखमरी के शिकार 119 देशों की सूची जारी की थी, जिसमें भारत का नाम शामिल है। झारखंड और छत्तीसगढ़ को सबसे ज्यादा खाद्य असुरक्षित राज्य माना जाता है। इनके बाद मध्यप्रदेश, बिहार और गुजरात का नाम आता है। फरवरी 2009 में विश्व खाद्य कार्यक्रम तथा एमएस स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन ने ग्रामीण भारत में खाद्य असुरक्षा संबंधी एक रिपोर्ट जारी की थी। इसमें बताया गया कि भारत में कुपोषित लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। खाद्य उत्पादन के जिम्मे विकास, बढ़ती बेरोजगारी तथा गरीबांे की घटती क्रयशक्ति को इसका प्रमुख कारण बताया गया।बहरहाल, भूख के खिलाफ एक कानून का सबको इंतजार है।
कांग्रेस इसे सन सत्तर के गरीबी हटाओ के नारे तथा नरेगा की अगली कड़ी के बतौर देख रही है। भाजपा व अन्य विपक्षी इसे लोकलुभावन और सस्ता प्रयास बताकर इसकी मंशा और व्यावहारिकता पर अनगिनत सवाल खड़े कर रहे हैं। इतना तो तय है कि भूख से संरक्षण को कानून बनाने और हर आदमी की खाद्य सुरक्षा को राज्य का दायित्व स्वीकारने के बाद हमारा देश एक वास्तविक लोककल्याण राज्य बनने की दिशा में एक कदम आगे बढ़ रहा होगा